भक्ति काव्य की भाषा :-

संत लिखमीदास जी ने अपने भक्ति काव्य में वाणी, भजनों एवं दोहों के अन्तर्गत जन मानस की सरल, सधुक्कड़ी एवं राजस्थान (मारवाड़ी) भाषा को अपनाया। जिसके कारण जन सामान्य पर इनकी भक्ति एवं काव्य का गहरा प्रभाव पड़ा और इनके अनुयायियों की संख्या समाज में बढ़ती
गई। काव्य में मारवाड़ी भाषा के साथ पंजाबी एवं अनेक देशज शब्दों का प्रयोग किया। रस एवं अलंकार प्रयोग के बावजूद इनकी वाणी की भाषा आसानी से समझी जा सकती है।

संत लिखमीदासजी की वाणियों का भाव सौन्दर्य

 

संत लिखमीदास जी लोक संस्कार क्रान्ति के अग्रदूत रहे। आपने अपने चिंतन, चरित्र, व्यवहार तथा रचित वाणियों के माध्यम से आमजन को सुसंस्कृत जीवन जीने का बोध कराया। स्वयं की वासना, कामना एवं अहंता पर नियंत्रण रखकर मानव जीवन के प्रतिपल को सुधारने की सीख दी। आपने निश्कपट और सरल जीवन जिया। इसी कारण सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रेरणा स्त्रोत माने जाते हैं। आपने जीवन की कठिनाईयों और सांसारिक प्रपंचो मे उलझे जीवन को नश्वरता का बोध कराते हुए आत्म बोध कराने का निरन्तर प्रयास किया। आपकी वाणियां आज भी जन मानस के गले का हार है। इन्होने बाह्याडंबर पर कटाक्ष करते हुए भौतिकता के प्रति चेतावनी दी, इसी कारण लोग इन्हे राजस्थान का कबीर मानते हैं। सामान्य किसान के घर जन्म लेकर कृषि कार्य परिवेश में सादगी पूर्ण जीवन जीते हुाए ईश्वर की सहज भक्ति की, वो कोई बिरला गृहस्थ ही कर सकता है। साधु संतो की आवभगत कर उनके सान्निध्य में ईश्वर भजन करना आपकी अभिरूचि रही। इसी कारण राजस्थानी लोक संत परम्परा के अग्रणी संत के रूप में आप ख्यातनाम है। यह सत्य है सन्तों का साहित्यिक चिंतन और योगदान ही सामाजिक चेतना बनता है जिससे जीवन बोध, समय बोध तथा युग बोध विकसित होता है। आज भौतिकता के उ‌द्दाम प्रवाह में मनुष्य डूबता दिखाई पड़ रहा है। सामाजिक आचार और व्यवहार अनजाने से हो गये है। ऐसे में आपकी वाणियों में व्यक्त हुआ सदाचार और भक्ति भाव मानवीय समस्याओं का समग्र और सुनिश्चित समाधान है।

(1) वाणियो में आत्म ज्ञान (स्वानुभूति)

जीवन को सम्यक गति देने एवं गन्तव्य के लिए स्वयं का ज्ञान होना अनिवार्य है। स्वयं के ज्ञान के बिना ओरो के ज्ञान में अर्थ कम अनर्थ ज्यादा है। संत जी का मानना है कि जो जीवन को सार्थकता देना चाहते है उनके लिए आत्म ज्ञान आवश्यक है:-

"कुटुम्ब छोड़ तीरथ फिर आवै, भवै भर्मना माहीं ।'

आत्म देव लिया संग डोले, ताको खोजे नाहीं ।।"

(2) सांसारिक जीवन से विमुक्ति ः-

आपने अपनी वाणियों के माध्यम से सांसारिक जीवन से छुटकारा पाने की सीख दी है, सांसारिक सम्बन्ध नश्वर है:-

"अब तूं सांच पकड़ भज भाई।

कुटम सेती सासे क्यो पड़िया, कोई किसी को नाही ।।

कुटुम जाल मकड़ी ज्यू जायले, तण कर उलझियो माही।

कर सिवरण कोई सन्त सुलझिया, तन का तिवरं मिटाई।।"

संत कहते है अनासक्ति से कार्यों को जलाकर, प्रभु मिलन की विरह वेदना धारण करने पर ही जीवन परमात्मा में लीन हो सकता है। मन की चंचलता संसार में मोह आसक्ति करवाती है। ऐसे में मन परनियंत्रण रख कर ही जीवन को सफल बनाया जा सकता है-

"संतो मन को कीजै कांई,

सुनो फिनै सबर नहीं आवैबै ठोड़ न बैठे ठाई ।।"

(3) सदाचार व्यापक आयाम:-

लिखमीदास जी ने सदाचार और सद्व्यवहार को बार-बार वाणियों में दोहराया है बाहरी आकर्षण की बजाय भीतर का अवलोकन सन्मार्ग देने वाला है -

बिना भेद बारे काई भटकै बारे भटकियों है काई।

अड़सठतीरच तने बताऊ, कर दर्शन धारी देह मांही।

जीव को सुसंगत करनी चाहिए, अच्छी संगत अमोघ फल देती है।

'लिखमा सतसंग करो नेमसूं कटे क्रोड़ अपराध।

संगत करना साधकी, जो होय पूरा साथ ।।'

सामाजिक जीवन यापन में उदात्त सोच रखते हुए आचरण पवित्र रखने का आग्रह करते हैं:-

पर नारी सू प्रेममत राखो, रूपदेख न रिझावणा। ,

बड़ी भौजाई नै माता जाणो मनड़ो नहीं डिगावणा ।।

"माता-पिता की करो सेवना, ज्ञान गंगा में नावणा।

दुरमत दुरबुद्धी दूर राख्खलो, साधु-सन्ता में बैठावणा"

आपने वासनाजन्य जीवन से उबरने की चेतावनी देते हुए निष्काम भक्ति का आग्रह किया :-

" हंसला चेत चलो मेरा भाई।

एक दिन जमड़ा आवसी, तने मार गुरज ले जाई ।।'

कर्म काण्ड और थोथे आडम्बरो से निजात पाने की अपील भी की है :-

अब तुम सिंवरां नबी रसूला।

सावो सायब, लेखो मोरी पड़ी जेल बंद भला।

रोजा राखे निवज गुजारे, मिटियान मन का मैला।।"

ठीक इसी प्रकार समाज में ढोंग करने वालों को भी कोसते हुए कहा है।

"साधु भाई जो भिलिया सो कूड़ा।

माया मोह लिया संग डोले, काम क्रोध में पूरा ।।"

संत शिरोमणि मनो विकारों को दूषित मनोवृति की खान मानते हैं जो अन्तस्थ भूमि को अनुपजाऊ बना देती है। अन्य द्रव्य भूमि में उर्वरता। आने पर ही भक्ति के बीज अंकुरित हो सकते है:-

मनरे मेलोडी चादर धोय, बिन धोया दुख उपजै हाट

जल में जाही खोय।

4. ईश्वर की सर्वव्यापकता एवं सहज भक्ति अद्भुत रस

आपने बाणी में कहा है ईश्वर एक है रूप अनेक :-

"सायब एक अनेक ईष्ट है ज्यू जाणो ज्यू ध्यावो।

शेषनाम सरबंगी सोई क्यू कोई दोष बताओ ।।"

आपका मानना है कि परमात्मा ने युग बोध करवाने हेतु भिन्न भिन्न रूप धारण किये हैः-

"राम अवतार वो तू माधव, धन छलियो कर धारी।

तुही कृष्ण रणछोड़ द्वारका गोविन्द गिरधारी ।।"

आपने सहज जीवनचर्या से प्रभु प्राप्ति का मार्ग दिखाया। ईश्वर प्रेम की परत अति सूक्ष्म होती है वे कहते

" झीणी चादर प्रेम री मोल अमोलक होय।

नाने धागे नाव रां, कण कण लिजे पोय ।।"

प्रार्थना परमात्मा के लिए सच्ची पुकार है। यह एक ऐसी दिव्य औषधि है जो हमारे आन्तरिक धावों पर मरहम का काम करती है। इसमें शुभ और पवित्र भाव समाहित है। इसलिए मानव को संतोष मिलता है और कृतार्थ होता है लिखमीदासजी प्रार्थना करते है:-

"अर्ज सुणो अजमल सुत रामा।

कष्ट काटो म्हारा श्याम धणी ।।"

संत का मनतव्य है। प्रार्थना अवश्य करें पर कामना नहीं:

"राम अवतार वो तू माधव, धन छलियो कर धारी।

तू ही कृष्ण रणछोड़ द्वारका गोविन्द गिरधारी।

कामना की अतृप्ति में भीषण जलन होती है। यह पूरी न हो तो क्रोध उत्पन्न होता है जो विवेक को नष्ट कर देता है:-

"भूला मनवा फिर भटकता, पर त्रिया सूं राखे हेत।

चंचल चोर बसे काया में, किण विध प्रसन्न होवेला देव।"

5. सामाजिक समरसता एवं सौहार्द्र भाव

लिखमीदास जी जात पांत तथा हिन्दू-मुस्लिम भाव से परे थे जब कभी जागरण में जाते सभी जाति के भक्त सन्तो को ले जाते। एक बार भक्त के घर जागरण में मेघवाल सन्त ले गये। भक्त ने मेघवाल संत के बारे में जानकर उनसे जागरण कराने में आनाकानी की। थाने में इसकी शिकायत हुई। थानेदार जांच करने चला तो नजर धुंधली हो गई। फिर भी सदाशयत रखते हुए आपने रामदेव जी से प्रार्थना की-

"बापजी निजर दुष्ट री टाल।

अर्ज किया आराधै आवो अपणो बिड्द संभाल,

कर्म गुण करणी जोय मत दाता। भेकटेक पथ पाल।।"

मुस्लिम पीरों की आत्मतुष्टि में सामाजिक समरसता स्वतः मुखरित हो रही है-

"हिन्दू पीर माने पर्यो दियो, कुण्डी गोरा दिया बाही।

मानस रूपी भोजन कराया, अटल जोत देखी बाही।।"

लिखमीदास जी कुल जाति से उपर उठकर भगवत भक्त को स्वीकारते हैं:-

ऊंच नीच कुल कोई नहीं कारण।

साथ हाथ सुमिरे एक धारण, लू ही उदाहरण

संत लिखमीदास जी की वाणी में जहां एक ओर सामाजिक समरसता की धारा प्रवाहित है वहीं दूसरी ओर संस्कारों को आचरण में डालने और आध्यात्म के माध्यम से जीवन दर्शन समाया है। संस्कारबद्ध जीवन हो तो ईश्वर आत्मा वेदन से प्राप्त हो जाता है। फिर मानव को तीर्थों पर भटकने की जरूरत नहीं पड़ती है। वह कहते हैं कि

स्नान तीर्धा फिर फिर, कहूंन पायो साई।

नेचल होय निगेहकर जीयो, परमेश्वर पिंड माही।

उनका मानना है कि परोपकार में भीरत रहे व्यक्तिस्वयं और अन्यों का भी उद्धार कर सकता है। वाणी में कहते हैं-

चंदन दरियाव कर पेड़ी सत सुकरत कर साथी तिरीजै।

इण विध संत अनेक उधरिया कर भाव भक्ति भेदीजे।

सुसंस्कार बद्ध जीवन तभी जिया जा सकता है जब सांसारिक विषय वासना को पासंग ने आने दें।

दीसत रूडा करणी रा कूड़ा पर प्रिया पर छावै,

वह नर अंजन में उलज्यो अवगत अलख ने पावै।

सांस्कृतिक जीवन और आचरण को प्रवल बनाना है तो मानसिक विकारों से विमुक्तहोना पड़ेगा। वह कहते हैं- भन रे मेलोडी चादर धोई, बिन धौया दुख उपजै, हर जलम जाए खोय। सांसारिक जीवन की रसवंती धारा प्रवाहित करनी है तो आडंबर छोड़कर जीवतां अपनानी होगी। रुरखा जीवन रोहिडे के फूल जैसा है। जिसका रंग तो आकर्षक होता है पर उसकी कली कोई नहीं तोड़ता। वैसे ही सांसारिक समरसता बिना जीवन शून्य है। इसलिए सामाजिकता की रसवंती धारा को बढ़ावा देना जरूरी है। इसलिए वह कहते हैं संतों भाई प्रेम घटा झूम आई। सम भाव विकसित करना है तो मन पर नियंत्रण करना होगा क्योंकि मन की चंचलता साधक को स्थितप्रज्ञ नहीं बनने देती है-

संतो मन को कीजै कांई, सूनो फिरे साबर नहीं आवे, ठोङ न बैठे ठाई।

मन विचलित न होगा तो समरसता का भाव भी सहज उत्पन्न होने लग जायेगा। वे कहते हैं-

ऊंच नीच कुल को नहीं कारण, साद होये सियरे इक धारण तू ही उधारण।

संत महाराज ने प्रकृक्ति को जनजीवन से जोड़ने का आह्वान किया है। रामदेव जी के दर्शन हेतु लोग नगे पैर चलकर आते हैं। उनके प्रति आस्था प्रकृति में बिम्बित है-

पीर थारे पावां आवे पीरघणी सो जोडे नर नारी।

इस पंक्ति में प्राकृक्तिक आस्था की प्रस्तुति हुई है।

बाबा रामदेव जी सामाजिक समरसता के प्रतीक देव हैं जिनके प्रति बिना किसी भेदभाव के लोगों की आस्था बनी है और सभी समान रूप से उनको ध्याते हैं। इसलिए लिखमीदास जी कहते हैं कि बापजी निकलंक नेजा धारी अर्थात रामदेव जी का ध्यान पवित्र और सभी को हर्षित करने वाला है। आपने इईश्वर की छवि को प्रकृक्ति के मध्य निहारने की चेष्टा की है। संत लिखमीदास जी ने एक भक्त कवि का नहीं बल्कि साधारण मानव जैसा जीवन जिया इसलिए आज उनके विचार प्रासंगिक हैं।

संत शिरोमणि लिखमीदास जी परमबोध, गूढ़ चेतना, स्वाध्याय, सहज पवित्र आचरण उनकी वाणियों में समाया है। ये वाणियां कलियुग की छाया से प्रभावित मनुष्य समाज और राष्ट्र को नई सचेतना और दिशा बोध देने में सक्षम है। वैश्वीकरण के इस दौर में प्रेरणादायी प्रबोध देने वाले ऐसे सन्त बिरले ही मिल पाते हैं। आपकी वाणियां प्रासंगिक ही नहीं अपितु कालजयी सिद्ध होगी।